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अतुलित बलधामम्

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आज की युवा पीढ़ी श्रुति, स्मृति,  पुराण की भाषा नहीं जानती।  अतः उन्हें आज के युग की धर्मानुसार विज्ञान की भाषा में समझाने की आवश्यकता है। यदि हम ठीक से समझाएं, संतुष्ट करें, उन्हें प्रश्नो, तर्कों और जिज्ञासा का विज्ञान की भाषा में उत्तर दे तो आज की पीढ़ी भी अध्यात्म और धर्म की उपासना में रुचि लेगी।  सत्य है कि सभी महापुरुष, संत और बुजुर्ग वर्ग आज की युवा पीढ़ी के युवक-युवतियों पर चिल्लाते हैं। टीका टिप्पणी करते रहते हैं कि इस पीढ़ी को आध्यात्म उपासना, ईश्वर तथा धर्म में रुचि नहीं है, आकर्षण नहीं है। यह पीढ़ी नास्तिकों की भांति व्यवहार करती है , बातें करती है, तर्क- वितर्क करती रहती हैं; यह झूठा आरोप है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए हमें संत  तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के एक सुंदर प्रसंग को जानना चाहिए। राम रावण युद्ध में रावण ने राम को नागपाश में बांध दिया था, नागपाश से मुक्त होने के लिए श्री राम ने गरुड़ जी को बुलाया। गरुड़ जी ने आकर राम को नागपाश से मुक्त किया, परंतु गरुड़ जी के मन में यह शंका उत्पन्न हुई कि जो प्रभु राम अपने भक्तजनों को भव बंधन से मुक्त करते हैं, वे स्वयं ना

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हमें हिंदुत्व को समझने के लिए कुछ पौराणिक कथाओं के जरिए हमारी सभ्यता संस्कृति को समझना होगा.... पिछले क्रम में हमने कुछ विशेष बालकों के उदाहरण को ले करके समझा था की हमारी संस्कृति क्या है उसी क्रम को जारी रखते हुए विशिष्ट बालक मारकंडे के बारे में और अन्य बालकों के बारे में जानेंगे। धर्म ग्रंथों के अनुसार मार्कंडेय ऋषि अमर है। आठ अमर लोगों में मार्कंडेय ऋषि का भी नाम आता है। प्राचीन समय में मर्कण्डु ऋषि और सुव्रता की कोई संतान नहीं थी। तब उन्होंने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तप किया। शिव जी प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि आपके भाग्य में संतान सुख नहीं है, लेकिन आपने तपस्या की है इसलिए हम आपको पुत्र प्राप्ति का वरदान देते हैं। भगवान शिव ने उनसे पूछा कि भी गुणहीन दीर्घायु पुत्र चाहते हैं या गुणवान 16 वर्ष का अल्प आयु पुत्र। तब ऋषि ने कहा कि उन्हें अल्पायु लेकिन गुणी पुत्र ही चाहिए। भगवान शिव ने उन्हें यह वरदान दे दिया। बालक मार्कंडेय बहुत मेधावी निकले। 16 वर्ष की आयु से पहले ही उन्होंने वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। उनके आचार्यगण उनकी प्रशंसा करते हुए थकते नहीं थे। वे कहते हैं-" मार्

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हिन्दूत्व मात्र एक धर्म नहीं, एक व्यापक विचारधारा है; जिसकी बाल्यावस्था पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रकान्तिं च करोति यः। तस्य वै पृथिवीजन्यफलं भवति निश्चितम्। अपहाय गृहे यो वै पितरौ तीर्थमाव्रजेत्। तस्य पापं तथा प्रोक्तं हनने च तयोर्यथा।। पुत्रस्य यः महत्तीर्थ पित्रोश्चरणपंकजम्। अन्यतीर्थ तु दूरे वै गत्वा सम्प्राप्यते पुनः।। इदं संनिहितं तीर्थं सुलभं धर्मसाधनम्। पुत्रस्य च स्त्रीयाश्चैव तीर्थ गेहे सुशोभनम्।। ' जो पुत्र माता-पिता की पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करता है,  उसे पृथ्वी परिक्रमाजनित फल सुलभ हो जाता है।  जो माता-पिता को घर पर छोड़ कर तीर्थ यात्रा के लिए जाता है, वह माता- पिता की हत्या से मिलने वाले पाप का भागी होता है, क्योंकि पुत्र के लिए माता- पिता के चरण सरोज ही महान तीर्थ है। अन्य तीर्थ तो दूर जाने पर प्राप्त होते हैं, परंतु धर्म का साधन भूत यह तीर्थ तो पास में ही सुलभ है। पुत्र के लिए माता-पिता रूपी सुंदर तीर्थ घर में ही बुद्धिमान है।' ये मानव मात्र को सिखाया है प्रथम पूज्य श्री गणेश ने। ऐसे ही अगर एक और बालक का उदाहरण देखें विष्णु भक्त ध्रुव प्राचीन काल की बात है राजा

नव उत्साह नव चेतना

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भारतीय स्वतंत्रता के 75 वर्ष में प्रवेश की आप सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाएं। स्वतंत्रता हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। तुलसीदास जी ने भी कहा है 'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं' अर्थात् पराधीनता में तो स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता। पराधीनता हर किसी के लिए अभिशाप है। वह चाहे मनुष्य हो चाहे कोई भी प्राणी। 'सामर्थ्यमूलम स्वतंत्र्य, श्रममूलम् च वैभवम्' यानि किसी समाज की, किसी भी राष्ट्र की आजादी का स्रोत उसका सामर्थ्य होता है और उसके वैभव, उन्नति, प्रगति का स्रोत उसकी मानव शक्ति है। आज हम स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे हैं, उसके पीछे मां भारती के लाखों बेटे बेटियों का त्याग, उनके बलिदान और मां भारती को आजाद कराने के संकल्प के प्रति उनका समर्पण हैं।  आज ऐसे सभी हमारे स्वतंत्रता सेनानियों को, आजादी के वीरों को, रणबांकुरे को, वीर शहीदों को नमन करने का पर्व है। हमारा सौभाग्य है कि हमने भारत की पुण्य भूमि पर जन्म लिया और आजादी के सुंदर वातावरण में सांस ले रहे हैं देश प्रेम एक पवित्र भाव है जो हर एक नागरिक में होना अनिवार्य है आज हम आजादी की खुली हवा में सांस ले रहे हैं